संस्मरण >> बुरा वक्त अच्छे लोग बुरा वक्त अच्छे लोगसुधीर चंद्र
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समाज, संस्कृति और सामाजिक इतिहास को समेटते इन निबन्धों को अच्छे और समर्थ गद्य के रूप में भी पढ़ा जाना ज़रूरी है।
सुधीर चन्द्र यूँ तो इतिहासकार हैं लेकिन उनकी चिन्ताओं और दिलचस्पियों का फलक इस अकादमिक श्रेणी से कहीं ज्य़ादा बड़ा है। गांधी पर जो काम वे करते रहे हैं, वह सिर्फ इतिहासकार का काम नहीं है। गांधी के साथ उन्होंने एक नितान्त निजी और दुर्लभ रिश्ता बनाया है, और उस 'असम्भव' व्यक्तित्व को समझते-जानते हुए देखने का एक अपना ढंग पाया है। हो सकता है कि यह ढंग उनका स्वभाव ही हो जिसे गांधी के स्पर्श ने और पुख्ता, और टिकाऊ बना दिया। इस किताब में शामिल गांधी-विषयक लेखों को अलग करके यदि हम सम-सामयिक सवालों और मुद्दों पर उनकी टिप्पणियों को भी $गौर से पढ़ें तो उस दृष्टि की मौजूदगी साफ दिखाई देगी जो जीवन को भी, और जीवन में होनेवाले परिवर्तन को भी एक गहरी नैतिक कार्रवाई के रूप में देखना चाहती है। 16 दिसम्बर-निर्भया काण्ड पर उनकी व्यथित प्रतिक्रियाएँ हों या दिल्ली में आम आदमी पार्टी के उदय पर उनकी टिप्पणियाँ हों, उनकी कसौटी कहीं अस्पष्ट नहीं है। अन्ना के अनशन को लेकर जब लगभग सबने अपने आप को एक हताशाजनित आशावाद के सुपुर्द कर दिया था, सुधीर जी बहुत सा$फ ढंग से उसकी नैतिक और व्यावहारिक विसंगतियों को देख और अभिव्यक्त कर पा रहे थे। इसी तरह पहले मुख्यमंत्रित्व काल में अरविन्द केजरीवाल के जिस धरने पर उनके समर्थक तक डिफेंसिव हो रहे थे, सुधीर जी केजरीवाल के उस फैसले की ऐतिहासिक और सैद्धान्तिक अहमियत को समझ पा रहे थे। देश में बढ़ती असहिष्णुता, कठिन और संवेदना-च्युत होता सामाजिक जीवन और राजनैतिक हताशा उनके चिन्तन के मुख्य बिन्दु हैं जिन पर वे इतिहास की गहरी समझ और आन्तरिक नैतिकता के स्पष्ट तर्क के साथ बार-बार विचार करते हैं। किताब में कुछ संस्मरण भी हैं जिनमें भीमसेन जोशी और भूपेन खख्खर पर केन्द्रित कतिपय लम्बे आलेख सम्बन्धित व्यक्तित्वों के अलावा भारतीय कला के इन दो पक्षों, संगीत और चित्रकला पर महत्त्वपूर्ण रोशनी डालते हैं। संगीत पर उन्होंने एकाधिक जगह और बहुत लगाव के साथ लिखा है। समाज, संस्कृति और सामाजिक इतिहास को समेटते इन निबन्धों को अच्छे और समर्थ गद्य के रूप में भी पढ़ा जाना ज़रूरी है।
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